देश को जिन हाथो में होना चाहिए था उन हाथो में आ चूका। अब जिम्मेदारी उन्ही की है जो ७५ सालो से देश को "परम वैभव" में ले जाने के गीत गाते है। देश को लोकतान्त्रिक तरीके से चलना चाहिए सामूहिक नेत्रेत्व में भारत आगे बढे यह आकांक्षा १२५ करोड़ लोगो के अंदर है।
परन्तु अब भारत देश एक तरुणाई भरी अंगड़ाई ले रहा है और भारतीय संस्कृति के चिंतक किंचित कम चिंता में है तो थोड़ा और सजग होना पड़ेगा। एक स्वयंसेवक को शीर्ष पर बैठा कर कुछ समय के लिए तो काम चल ही जायेगा परन्तु भविष्य उतना चमकदार नहीं जितना आज दिख या दिखाया जा रहा है। समय का चक्र फिर जब घूमेगा तो फिर करने के लिए कुछ नहीं होगा जिसको आज किया जा सकता है। थोड़े से सजग लोग भविष्य की तैयारी पहले करते है और "परम वैभव " के ज्यादा उतावले लड़खड़ाने लगते है।
सबसे कठिन और सबसे दुर्बल कार्य देश संस्कृति और धर्म पर भविष्य की कल्पना करना है। क्यूंकि सत्ताधारी को जो हो रहा है उसी में "परम वैभव " दिखने लगता है और उसी को लोगो के गले उतारा जाता भी है और वो स्वाभाविक भी है क्यूंकि यह तो सत्ता का स्वभाव होता है। राजा दशरथ को तो चारो और सुकून और सम्पनता ही दिखती है वो तो कोई विश्वामित्र ही होता है जो राजा दशरथ की परिकल्पना से भी परे "रामराज्य " की सोच रख कर उसपर कार्य शुरू करता है। और वैभवपूर्ण और सम्पन्ता की श्रेष्ठता पर से दो सुकुमारो "राम और लक्ष्मण " को लेकर एक नए भविष्य की नींव रख देता है।
विचारो के और गहरे गोते लगाये तो भारत देश के भविष्य की कुछ एक कठनाईओ पर जिक्र कर ले क्यूंकि हिन्दू धर्म भारत संस्कृति पर अभी कोई ग्लोबल विचार विमर्श हो ऐसा कोई दौर आया नहीं सो गाये बघाये आप जैसे और हमारे जैसे ही कुछ उछल कूद करते रहे।
देखीय थोड़ा सा कड़वा होने के लिए क्षमा चाहूंगा परन्तु यह कड़वाहट समझनी होगी तभी तो अमृत निकलेगा। देश में जो हिन्दू रहते है उनको न तो अपने धर्म का ज्ञान है और न ही संस्कृति की समझ है। भगवान की फोटो को जेब में रख या हनुमान चालीसा का लॉकेट पहन धार्मिक हो जाते है। घर में थाली में रोटी और औरतो को सर पर पल्लू रखने को भारतीय संस्कृति का नाम दे देते है और अंग्रेजो द्वारा खींची गई लकीरो को भारत देश समझ लेते है। न तो हिन्दू धर्म की विशालता का पता न ही भारतीय संस्कृति की गहराई का ज्ञान और न ही भारतवर्ष की विशालता और महानता का परिचय।
ऐसे में मेरे जैसे को बहुत डर लगता है जब छुट भैया टाइप के लोग भाजपा और संघ से अपने सम्बन्ध बना रहे है और बहती गंगा में डुबकी लगा रहे है और सत्ता की मलाई में अपनी जीभ लपलपा रहे है। इनसे भविष्य का देश संस्कृति और धर्म बचेगा इसकी उम्मीद ज्यादा नहीं जब तक संघ के शीर्ष स्तर पर देश , धर्म और संस्कृति पर स्पष्ट समझ न बन जाये। और इस बात की मुझे पूरी उम्मीद है की संघ नेतृत्व इस बात पर गौर जरूर कर रहा होगा।
देखिये मित्रो आज २०१५ में सत्ता के नेताओ को जागरण में जाना, झांकी में जाना, मंदिरो में प्रसाद चढ़ाना, आरती करना बहुत आवशयक है क्यूंकि हिन्दू में अपने धार्मिक कृत्य को लेकर वामपंथीओ ने इनके दिमाग में एक हिकारत भर दी थी जिसका निकालना जरुरी है और उसके लिए यह टोटके ठीक भी है। १०० करोड़ हिन्दुओ की एकता और उनको मानसिक स्तर पर एक करने के लिए यह सांकेतिक कृत्य जरुरी भी है। परन्तु जो डर है वो यह है की अगले २० साल बाद धर्म का स्वरूप कैसे होगा हिंदुस्तान में। इन्ही गहराईओं पर विस्तार से बात करनी होगी।
हिन्दू होने के नाते सबसे बड़ी संपत्ति मेरे पास है स्वतंत्र सोच जो वैदिकता से लेकर सनातन और विष्णु से लेकर रावण के ब्राह्मण होने या भगवान राम के पुरषोतम होने से कृष्ण भगवान की सोलह हजार रानी, वानर किन्नर सर्प मानव दानव गण आकाश पातळ शिव ब्रह्मा से लेकर धन्वंतरि भार्गव भृगु और खुजराहो, सतयुग से लेकर मंगल और दूसरे ग्रहो पर जीवन तक पर अपनी सोच और स्वतंत्रता बरक़रार रखता है। यह कहना इसलिय जरुरी है की कही कल ऐसा न हो जाये की जिन टोटको को हम आज आजमा रहे है कल वो हमारे गले पड़ जाये। इसके लिए सामूहिक नेतृत्व और स्वतंत्र सोच दो नियम आवश्यक है। अन्यथा इन दो नियमो की उपेक्षता से क्रिस्चेनिटी और इस्लाम इस वर्तमान दशा में पहुँच गया।
धर्म क्या है - क्षमा करे मैं न तो इतना काबिल हूँ जो इतने विस्तृत शब्द पर कोई बड़े बोल बोलू परन्तु जो अब तक की सबसे व्यवाहरिक परिभाषा मुझे समझ आई है वो यह है की "धर्म की परिभाषा काल और स्थान के हिसाब से बदलती रहती है " इसको आप किसी भी काल में लागु कर ले जैसे की एक काल में कितने पति रखे यह स्त्री पर निर्भर था और पति कितनी पत्नी रखे यह पति पर निर्भर था , क्या खाया क्या पीया जाये यह काल और स्थान के हिसाब से निर्धारित होता था, क्या पहना और क्या ओढ़ा जाये यह भी अलग अलग स्थान और काल पर निर्भर करता था और है। तो क्या यह ही धर्म है या यज्ञ करना पूजा करना तंत्र मन्त्र यह धर्म है ?? धर्म है क्या प्रणायाम करना आकार या निराकार को मानना धर्म है ?? खाना या उसको छोड़ना धर्म है, कृष्ण की गीता पर आधारित कर्म ही धर्म है या सब कुछ छोड़ जंगल जाना धर्म है ??? आप इसका जवाब नहीं ढूंढ पाएंगे क्यूंकि यह सब रास्ते है मन लगाने के, जीवन जीने के जिनको शाब्दिक रूप से कभी धर्म तो कभी संस्कृति कह दिया जाता है और कभी कभी तो इनका घालमेल ही हो जाता है और पहचान ही नहीं हो पाती की क्या धर्म क्या पंथ क्या और क्या संस्कृति क्यूंकि यह सब तो रास्ते है अंत तो आत्मा को परमात्मा से मिलाना ही लक्ष्य है। तो न संस्कृति अंत है और न धर्म अंत है यह तो वाहक है और जो हिन्दू दर्शन आत्मा में विश्वास रखता है उसके लिए तो और भी कठिन है किसी चीज को निर्धारित करना। क्यूंकि हिन्दू दर्शन की सबसे बड़ी विशेषता है "स्वतंत्रता"
धर्म पर पूरी बहस से मेरा इस टॉपिक का मंतव्य बदल जायेगा इसलिय थोड़ा छोटा करते हुए बोलू तो धार्मिक स्तर पर कुछ समय के लिए एक सामजस्य बिठाया जाए (जिसको की सभ्यता का नाम दिया जा सकता है ) सभी धर्मगुरू को बैठ कर स्वतंत्र निष्पक्ष समावेशी धनात्मक विचार करना चाहिए क्यूंकि भारत तो "परम वैभव " होने के बाद भी रहेगा न?? तो आने वाली नस्ल आपके आडंबरों पर प्रशन न करे और हमारे देश में वैभव की निरंतरता बनी रहे उसके लिए यह कार्य तो करने होंगे। क्यूंकि भारत में श्री राम का मंदिर बनना चाहिए और बनेगा भी परन्तु आने वाली पीढ़ी को पता होना चाहिए की हम राम को पूजते है परन्तु राजा दशरथ किसको पूजते थे। अन्यथा एक समयावधि के पीछे आप कल की पीढ़ी को नहीं समझा पाएंगे।
हमारा देश एक सुरक्षित हाथो में है इसलिए में आज ऐसा सोच सकता हूँ परन्तु कल क्या हो कुछ नहीं कह सकते। कुछ लोग केहेते है चाणक्य जी ने जो अर्थशास्त्र में लिखा वैसा होना चाहिए कुछ कहते है विक्रमादित्ये जैसा होना चाहिए कुछ केहेते है राम राज्य होना चाहिए। वगैरह वगैहरा।
मेरा मानना है जो अच्छा है और वर्तमान की दृष्ट्रि में समायोजक है उसको तो जरूर ही लागु करना चहिय परन्तु जो लोग किसी चीज को जस का तस लागु करने की चाहत रखते है उनको इस्लाम की दशा से शिक्षा लेनी चाहिए।
एक उदारहण देना चाहूंगा द्वापर में लगभग ५००० वर्ष पूर्व भगवान श्री कृष्ण ने गीता लिखी तो क्या उन्होंने किसी का कट पेस्ट किया ,उनकी स्वतंत्र सोच थी तो इंद्र से भी लड़ लिये और गीता जैसा पूर्णत कर्म पर आधारित महाग्रंथ भी मानवता को भेट कर दिया। यदि भगवान श्रीकृष्ण भी मानलो रामराज्य की ही मात्र कल्पना करते रहते तो शायद हमें गीता नहीं मिलती या भगवान राम भी उनसे पूर्व विष्णु के अवतार भगवान परशुराम जैसा ही बनने की जिद पकड़ लेते तो राम राज्य भी न आ पाता।
इसलिय मित्रो मेरा कहना है जो अच्छा है उसको वर्तमान स्थिति में मानवता और देश की श्रेष्ठता में लागु करना और नियम बनाना ही धर्म है। चाणक्य जी ने जो किया वो हमें करने की आवश्यकता नहीं उससे सबक सीख कर अर्थशास्त्र से उचित बात लेकर वर्तमान परस्थिति में नियमित करना और उसको कानून का रूप देना ही सभ्य समाज और सभ्यता की नींव होगी।
संस्कृति क्या है - यह भी इतना बड़ा विषय है की मेरे जैसा तुच्छ इस पर प्रवचन देता शोभा नहीं देता परन्तु जो जिस स्थान पर जिस काल में उचित हो वो ही संस्कृति है उसको खान और पहनना से जोड़ना जड़ता है। फिर देखिय जैसे इस्लाम ने किया एक अरब देश के पहरावे को भारत जैसे उपमहद्वीप पर लागु करने की निष्फल कोशिश की। भारतीय संस्कृति का एक जैसा पहरावा और खाना हो ही नहीं सकता इसलिए जो लोग संस्कृति का ठेका ले रहे है वो समझे की "कोस कोस पर पानी और ढाई कोस पर वाणी बदलती है " इसलिए संस्कृति के ऊपर भी कठोर न होया जाये। अन्यथा कांग्रेस के बैठे विदूषक तो अपने को पांडव भी मान चुके और ऐसा व्यवहार कर रहे है की इंदप्रस्थ वो चला रहे है और हस्तिनापुर कौरव, यह में नहीं कह रहा वो भी खड़के साहब लोकसभा में कह रहे थे। क्यूंकि कांग्रेस भी प्रगतिशील न हो कर इतिहास में जीने के लिए उद्वेलित है। मेरा कहना है की जिस युग में कपास नहीं कुछ और था तो वो वह पहनते थे इसप्रकार जब जब जो बनता रहा वैसा लोग पहनते रहे। इसलिए किसी विशेष पहरावे या मोबाइल फोन के प्रतिबंध कभी कभी ऐसा एह्साहस् कराता है की संस्कृति बड़ो या पूर्वजो के पास रहे ऐसा किसी "सत्य " से बंधा नहीं।
जैसे की शिव जो पहनते थे वो विष्णु जी नहीं पहनते और जो ब्रह्मा नहीं पहनते वो परशुराम जी ओढ़ते है। इस लिए जब संघ (आर एस एस ) या देश का बौद्धिक समाज "समान नागरिक सहिंता " की बात करता है तो वो इस चश्मे से तो गलत लगती है परन्तु एक मानक बनाया जाये यह वर्तमान काल की जरुरत है। देश अहितकारी लोग ऊपरलिखित हिन्दू धर्म के तर्कों को कुतर्को में बदल कर इस "समान नागरिक सहिंता " से देश को वंचित रखे है। मैं बड़े जोरदार तरीके से कहना चाहूंगा की हिन्दू धर्म में भिन्न भिन्न काल और स्थान की भिन्नता होते हुए भी वर्तमान समय की मांग है की देश में "सामान नागरिक सहिंता " हो क्यूंकि जिस स्वतंत्र की बात की जा रही है वो तो इसमें बंध कर ही मिल सकती है। और उसको ही सभ्यता कहा जाता है और एक सभ्य समाज किसी कानून से बंधा होता है।
अंततः धर्म और संस्कृति पर कहना है की दोनों जगह भिन्नता है परन्तु वर्तमान काल में इन में समजास्ये बैठाना आज के बौद्धिक और प्रगतिशील (वामपंथी वाला प्रगतिशील नहीं ) समाज को इसको ढालना होगा जिसको की आने वाला कल सभ्यता का नाम देगा।
देश क्या है - अंग्रेजो की खींची लकीरो को भारत कहने वाले लोग इस भारतवर्ष की विशालता से परिचित नहीं और मेरे परिचय कराने का तत्पर्य आपमें जोश भरकर दूसरे देशो पर अपना अधिकार जताने की प्रेरणा देना भी नहीं है। इतिहास गवाह है की हर ५० वर्षो में दुनिया के देशो की सीमाये बदलती रहती है इसलिए हे ! वर्तमान भारत वीर अपने को मानसिक रूप से दुसरो को समाहित करने के लिए मानसिकता रखो , बड़ा दिल रखो क्यूंकि कल बिना लड़े भी तुम्हारे "परम वैभव" और "संस्कृति प्रतिष्ठा" से यह तुम में ही मिलने वाले है।
एक बात संस्कृत के लिए जरूर कहूँगा की कृपया संस्कृत भाषा का मजाक न बनाया जाये उसे हिंदी वाले सरकारी टोटको से दूर रखा जाये। इन टोटको ने हिंदी को कही का नहीं छोड़ा। संस्कृत भाषा को किसी की दया नहीं चाहिए इसलिए इसको किसी ढकोसलों में मत बांधो यदि करना ही है कुछ तो इस भाषा का रोजगार उपलब्ध करा दो लोग तो अपने आप लाइन में लग कर इसको सीख लेंगे। इसके लिए उर्दू टाइप के शिक्षक या पेंशन जैसी नौटंकी मत करना।
अब प्रशन आता है की यह सब करेगा कौन ??????????????????????????????????????
देश तो सरकार चला रही है तो उसके पास समय का भी बंधन है , दुनिया की भी फ़िक्र है और प्रोटोकाल की भी बेड़िया है फिर सबसे बड़ा चेलेंज है आर्थिक स्थिति का सो वर्तमान नेतृत्व को तो पहले १२० करोड़ लोगो को आर्थिक रूप से संपन्न बनाना ही पड़ेगा जब ही धर्म, संस्कृति और देश स्वतंत्र होकर प्राणवायु ले पायेगा। सो मोदी जी आप तो लगे रहिए बाकी कार्य तो सांस्कृतिक संगठन का राष्ट्रिय स्वयं सेवक संघ का ही है। क्यूंकि राक्षशो से बचाने के लिए राम को तो प्रतिष्ठापित कर दिया लक्ष्मण को और ढूँढना है जो इस हिन्दू धर्म , भारतीय संस्कृति को एक मानक बना सके जिस में १२० करोड़ देशवासी एक सभ्यता के नीचे रह कर एक उज्जवल भविष्य का निर्माण करे जिसको की देसी तालिबानों के हाथो में जाने से बचाया जा सके।
अन्यथा आपने देखा कोंग्रेसी सत्ता ने ६० वर्षो में देश संस्कृति और धर्म का क्या हश्र किया। टोटको से कुछ न होगा मित्रो। निरंतर संघर्ष स्वतंत्र सोच निष्पक्ष सत्ता और समन्वयता से ही कुछ हो पायेगा। क्यूंकि "परम वैभव " के बाद भी जीवन होगा पर कैसा होगा इसको हम सब आज ही निर्धारित कर सकते है नीव डालने के बाद भवन का नक्शा छेड़ना उसकी मजबूती से समझौता होगा।
जो लोग कल कह रहे थे की अब क्या करे सरकार तो बन गई , तो फिर तैयार हो जाओ और लक्ष्मण को खोजो !
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