- संघ को भारतीयता और हिंदुत्व को अलग से परिभाषित करना होगा।
- संघ को अपने को दिशा देनी होगी की वो भारत तक सिमित रहेना चाहता है या उसका वैश्विक रोल हो। अर्थात संघ भारत (भारतीयता) का प्रतिनिधित्व करता है या विश्व के हिन्दुओ का प्रतिनिधित्व करता है।
- संघ को परिभाषित करना होगा उसका सिख, बोद्ध (चीन, जापान, कम्बोडिया और थाईलैंड) प्रकृति पूजको (अफ्रीका) से क्या सम्बन्ध होगा।
- संघ कहेता हैं की वह सांस्कृतिक संघठन है परन्तु उसकी संस्कृति हिंदुत्व है या भारतीय (आज के भारत जो की एक संविधान के अतेर्गत) ।अब कुछ वो बातें जिन पर लोग संघ को विचार में विज्ञानिकता और नूतनता लाने को कहेते है। मैं पूरे तथ्यों के साथ कहेता हूँ की यह दोनों बातें संघ के विचारो में है। इसलिए बात सिर्फ दिशा की है। संघ को पहेले तो इसलाम फोबिया से बहार आना पड़ेगा। संघ को हिंदुत्व के धनात्मक पक्ष पर ही ध्यान देना होगा। संघ को पहेले भारत में ही हिंदुत्व की वो बातें निकालनी होंगी जिनसे की भारत देश में बसे लोगो में एकत्व का भावः बने और हिंदुत्व की धुरी पर टिके। दूसरा संघ अपने मुह पश्चिम से पूर्व की और करे। हिंदुत्व की वो भूली बिसरी परन्तु अब तत्पर कम्बोडिया, थाईलैंड, म्यांमार, श्री लंका और जापान की तरफ देखना होगा। जो हिंदुत्व से जुड़ने की हर संभव कोशिश कर रहे है। बैंकाक (थाईलैंड) विश्वे के सर्वश्रेष्ठ हवाई अड्डो में से एक स्वर्णभूमि एअरपोर्ट में भगवन विष्णु की समुन्दर मंथन करती हुई विशाल भीमकाय मुर्तिया। इस बात को परीलक्षित करती हैं की थाई लोगो में अपनी पुरातन और सम्रद्ध संस्कृति से जुड़ने की कितनी उत्कंठा हैं।
क्या भारत (कथित सेकुलर) में येह संभव है। विश्व को संघ यह समझाय की बुद्ध हिन्दुओ के आराध्य देवे थे और हैं भगवन बुद वो नौवा अवतार हैं जिस विचार पर हिन्दू धरम टिका है। चीन आज भले ही कोमुनिस्ट देश हो परन्तु वहा पर हिंदुत्व (जब बोद्ध हिंदुत्व का ही एक अंग है) की जड़े बहुत ही गहेरी हैं। मेरी इस बात की पुष्टि पांचजन्य के पूर्व संपादक श्री तरुण विजय जी से भी की जा सकती है। आज संघ को इस बात पर विचार करना होगा की यदि भारत, चीन, मयन्मार, नेपाल, श्री लंका, कम्बोडिया, थाईलैंड, जापान, कोरिया यह देश जो सवाभाविक रूप से हिंदुत्व की परम्परा के वाहक है को कैसे जोड़ा जाये। परन्तु संघ जब तक यह नहीं कर पायेगा जब तक भारत और हिंदुत्व की अलग से परिभाषित नहीं करेगा।
इस के लिए संघ को विचारना होगा की - सभी भारतीय हिन्दू हो सकते हैं परन्तु क्या सभी हिन्दू भारतीय हो सकते है।
यदि संघ ने इस पर विचार कर लिया तो संघ कम से कम आज की भारत में निहयेत ही निम्न और दोयम दर्जे की राजनीती से बच कर हिंदुत्व के विकास का वास्तव में मार्ग प्रशिक्षित करेगा। जब आप हिंदुत्व के साथ भारतीयता को भी लेकर जाओगे तो दुसरे देश में रहेने वाले हिन्दू भारत माता की जय क्यूँ करेंगे। जब हम हिन्दू भारतीयों को अपनी जन्मभूमि पर गर्व हैं तो वो हिन्दू जो दुसरे देशो में रहेते है तो उनको वहा की जय जय कार करनी दी जाये। अभी में कुछ समय पहेले नेपाल में था पशुपति नाथ मंदिर परिसर में बहुत ही भव्य कार्यक्रम था वहा पर सभी मुख्य ऋषिगन भारत के ही थे तो जिस प्रकार हमारे मंदिरों में अंत में सभी देवी देवताओ की जे जे कार की जाती है उसमे भारत माता की जे होती है (और हिन्दू भारतीय होने के नाते मैं भी करता हूँ और मुझे गर्व है) तो नेपाल में भी करवाई गई परन्तु बहुत से देशभक्त नेपाली हिन्दुओ में यह संकोच का भावः हुआ की भारत माता की जय जय कार करू या न करू। तो संघ को इस बात को समझ न होगा की धरती पर लाइन (जो की अधिकतेर अंग्रेजो ने खिची है) को देश मान कर हम राजनीती करने लग जाये तो हिंदुत्व का रास्ता तो बाद ही होगया समझो। हिंदुत्व अग्रेजो के द्वार खिंची किसी भी बड़े भू भाग से कही बड़ा है। हाँ यह सत्य है की में भारत में रहेता हूँ परन्तु यह भी सत्य ही की यह मेरा (हिंदुत्व की द्रष्टि से) अधुरा भारत हैं। इसलिए हमे आधुनिक समय में अंग्रेजो द्वारा खिंची हुई लाइनों के हिसाब से ही चलना होगा और मुझे कोई फरक भी नहीं पड़ता परन्तु यदि संघ के लिया यह कटा छठा देश ही हमारे हिन्दुओ का भारतवर्ष है तो गलत है।
संघ को अपनी दिशा में तिक्षीनता लाने के लिए हिन्दुओ का पुरोधा वाक्य वसुधेव कुटम्बकम का सही अर्थो में पालन करना होगा। अर्थात हिन्दू भारत में राजनेतिक तौर पर तो रह सकता हैं परन्तु संघ के लिए हिन्दू धार्मिक रूप से विश्व का है। और संघ को विश्व के हिन्दुओ की बात धार्मिक और संस्कृतिक रूप से सुन कर उसपर निर्णय करना होगा।
जैसे की मलेशिया में पीड़ित हिन्दू, श्री लंका में पीड़ित हिन्दू (हलाकि सिंहल भी हिन्दू ही है) को भारत सरकार से इतर जा कर संबोधित करनी ही होंगी। भारत सरकार से हिन्दू न तो बंधा है और न भारत सरकार में इतनी शक्ति हैं की विश्व के १०० करोड़ हिन्दुओ की देख रेख कर सके वो तो भारत के नागरिको की सरकार है (संविधान के हिसाब से) और उसमे सभी वर्गो के लोग शामिल है। मैं यह भी नहीं कहेता की हिन्दू या संघ भारत सरकार पर दबाव भी न बनाये। अवश्य बनाये परन्तु वो अधिकतेर नागरिक अधिकार होंगे। आज हम हिन्दू भारत देश में काशी , मथुरा और अयोध्या के लिए और न जाने कितने असंख्य मुद्दे है जिन पर की नाराज हुआ जा सकता है। परन्तु उसमे सरकार का दोष मानना ही गलत है और संविधान बदलने की कुव्वत हम में हैं नहीं। इसलिए संघ को इसमें उलझना ही नहीं चाहिय। अभी आप देखो चीन में कोमुनिस्ट सरकार कितने साल है (अब यह बात कहे कर में चीन का विरोध नहीं कर रहा हु) क्योंकि चीन की कोमुनिस्ट सरकार अपनी साम्यवादी निति बदल सकती हैं (जो की मार्क्स के बिलकुल विपरीत है) तो क्या कभी धार्मिक निति नहीं बदल सकती अवश्य बदल सकती है। आज जो लोग चीन गए हैं वो जानते है की चीन में हिंदुत्व (यदि बौध को हिंदुत्व का हिस्सा माने) की जड़े कितने गहेरी है। शायद उतनी तो भारत में भी नहीं। संघ अपनी शक्ति चीन और जापान में क्यों नहीं बढाता। सोचो भारत - चीन - जापान हिंदुत्व की एक सामजस्य सोच पर एकमत होजये तो विश्व का नक्शा क्या होगा। अब इसमे अपनी संस्कृत जो निश्चित रूप से हिंदुत्व है से कम्बोडिया और थाईलैंड कितने कुलबुला रहे है।
क्यों संघ हिन्दुओ को शिक्षित नहीं करता की कम्बोडिया के अंगकोर वाट के मंदिर भी हिन्दुओ के धार्मिक स्थल में शामिल किये जाये। क्यों संघ शंकराचार्य जी की पुरानी परम्परा को संशोधन कर कर उसे विश्व में लागु करे। शंकराचार्य जी ने तो भारत वर्ष (जो की आज इंडिया की नाम से है) में ही अपनी पीठ स्थापित की थी संघ उसको पूरे विश्व में फैलाता क्यों नहीं। उसमे पाकिस्तान की हिंगलाज देवी, लव कुश मंदिर (पाकिस्तान), अंगकोर वाट (कम्बोडिया), श्रीलंका, बामियान (अफगानिस्तान), कैंडी, बारबुदुर और जावा (इंडोनशिया), अग्नि मंदिर बाकू (अजरबेजान), ढाकेश्वरी मंदिर (ढाका),कीनिया, फिजी, गुआना, बन्दर अब्बास (इरान), वाट फाऊ (लाओस), वाट रोंग खूं (थाईलैंड) ऐसे बहुत से हिन्दुओ के बड़े मंदिर हैं। क्यों हिन्दू भारत के ही मंदिर को तीर्थ मानता हैं। हम अभी हल ही के ढाकेश्वरी और हिंगलाज देवी के पाकिस्तान और बांग्लादेश के मंदिर भूल चुके हैं। तो संघ को शंकराचार्य की पुरानी परम्परा को विस्तार देना होगा। और मुझे लगता हैं इसी काम को संघ को अपनी एक स्तम्भ बनाना होगा। इनकी जानकारी अपने साहित्य में करनी होगी। यह हिन्दू जो पैसे कमा कमा कर उसका निर्लजरूप में उपभोग संस्कृति में लगे हैं उनको उद्देश्य और दिशा भी संघ को ही देनी होगी। शंकराचार्य जी के समय में भी एअसा ही था और आज भी वैसा ही हैं और संघ को वोही परम्परा का पालन करना होगा।
दूसरा संघ को यह ड्रामा (क्षमा करे) मुस्लमान को जोड़ने के लिए एक अलग से इन्द्रेश जी के नेत्रत्व में विंग बनाने की तो बिलकुल ही आवश्यकता नहीं है। अरे येह राजनेतिक है यह काम तो राजनेतिक पार्टियों पर ही छोड़ देना चाहिय। संघ का जनम कम से कम इस क्षुद्र काम के लिए तो हुआ ही नहीं। इस इस्लामिक फोबिए से तो बिलकुल ही बहार निकलना होगा। आप इस का मुकाबला कमसे कम आज जैसे समय और संघ की इस सिमित शक्ति से तो बिलकुल ही नहीं कर पाओगे। २०-२२ साल का अरसा बहुत बड़ा तो नहीं पर काफी होता है संघ के १९२५ में स्थापित होने के बाद भी संघ १९४७ में भारतवर्ष और हिन्दू के बहुत बड़े भू भाग को इस्लामिक हाथो में जाने से रोक नहीं पाया। तब संघ के होते हमने हिन्दू परम्परा के एक बहुत बड़े भू भाग को गवा दिया और अभी भी भारत में ८५ साल के संघ के बाद भी हिंदुस्तान में हिन्दू किसी भी सूरत में सुरक्षित, समानित, सुखी नहीं कहा जासकता। मैं यह नहीं कहेता संघ ने कुछ भी नहीं किया संघ ने वो काम कर दिया की आज देश की रोते बिलखते कुते बिल्ली की जिंदगी बिताते लोग संघ रूपी वटवृक्ष के निचे खडा हो सकता है।
एक आसरा हैं हिन्दू के पास संघ के रूप में। संघ क्यों यहूदियो से अपने संपर्क नहीं बढ़ता क्यों संघ स्पष्ठ रूप से धार्मिक और सांस्कृतिक रूप से (राजनेतिक अभी नहीं क्योंकि यहाँ पर भारत सरकार से सम्बंधित दुविधाये आजाएंगी) संबध बनाता। जितनी इस्राइल के रूप में संघ हिंदुत्व को सक्षम बना सकता हैं उतना कोई भी नहीं बना सकता। और मैं इस बात को कोईं छुप कर नहीं बड़े स्पष्ठ रूप से कहूँगा की यहूदियो के पास ताकत है, ज्ञान है, संसाधन है परन्तु मानव शक्ति नहीं और हमारे रूप से १०० करोड़ का मानव संसाधन है। उसको यह चाहिय और हमे वो जो यहूदी भईयो के पास है। दूसरा यहूदी हमारे वो ही यदुवंशी हैं जो द्वारका से उसके डूबने पर इसेरेअल में जाकर बस गए थे। यदि इनको विज्ञानिक तरीके से खोजा जाये तो सभी को इस तथ्य का पता चल सकता है चाहए तो डीएनए टेस्ट करा लो अभी यहूदियो ने स्वयम नागालैंड में अपने पूर्वज खोजने की पुष्ठी की थी। संघ भारत से बहार अपने धार्मिक स्थल पर हिन्दुओ को जाने के लिया प्रेरित करे उनको वित्तए सहयेता भी करे। जापान - चीन (जिसमे तिब्बत शामिल है)- कम्बोडिया - विअतनाम-ताईवान- थाईलैंड - मयन्मार - श्रीलंका- नेपाल - इसेरेइल से धार्मिक और सांस्कृतिक रूप से हिन्दू से हिन्दू संपर्क पर जोर दे। भारत माता (जिस पर की मुझे गर्व है और मेरी आराध्य है जनम भूमि की वेजेह से) उसका कृपया धर्मिकरण न किया जाये नहीं तो आप जो हिन्दू तो है भारतीये नहीं उसके नागरिक अधिकारों में अनावश्यक बाधा डालो गे ।
अब आप सोच की ऊपर लिखी शक्ति यदि वास्तव में एक हो जाये (जो की निश्चित रूप से होगी) तो हिन्दू विश्व का फिर से वो ही उद्धार करेगा जैसा की हिन्दुओ ने अपने स्वर्णिमकाल में कभी किया था। अब कुछ बाते आज की जो आवश्यक चुभने वाली है। संघ सिमित होता जा रहा है। किस रूप में यह भी समझना होगा। संघ बढ़ तो रहा है परन्तु यदि प्रोफसिओनल भाषा का इस्तेमाल करू तो मार्केट शेयर घट रहा है। आज हम कहीं न कहीं अपनी शक्ति दो पैसे के चैनलो के राजदीप सरदेसाई और प्रणव राये जैसे के पीछे व्यर्थ करते हैं इनकी तो कोई बिसात ही नहीं हिंदुत्व के पैर की एक धूल से मार्क्स जैसे निकल जाते है। एक प्रशन बीजेपी का भी अवश्य आता हैं। बीजेपी एक बात जान ले की संघ ने कोई ठेका नहीं ले रखा किसी को प्रधानमंत्री बना ने का। संघ के लिए इन छुद्र कामो के लिए कोई स्थान ही नहीं। मंदिर भक्तो के लिए होता हैं जिसको पूजा करनी है करो मंदिर अपना कद घटा कर भक्त के लिए नहीं भागता। जिसको आना हैं आओ पूजा करो प्रसाद लो और जाओ। मंदिर को झुकाने का प्रयत्न मत करो और न ही इस सनातन मंदिर के सामने कोई मठ खोलने की गुस्ताखी करो अन्यथा हश्र चिराग के चारो तरफ घुमने वाले पतंगे के सामान ही होगा जो उसके प्रकाश से प्रभावित होकर आता तो है परन्तु जब टकराता है तो अंजाम सुखद नहीं होता।
अंत में यह बाते कहेकर अपनी बात समाप्त करूँगा प्रथम संघ ने इसलाम में उलझ कर बहुत बड़ी शक्ति और बहुत ज्याद समय का विनाश किया है (परन्तु एअसा नहीं की लाभ नहीं हुआ परन्तु तुलनात्मक कम हुआ है)। मेरा कहेना है इससे निपटने के तरीको पर विचार किया जाये। परन्तु किसी भी रूप में संघ इनका तुस्टीकरण करे तो बिलकुल भी उचित नहीं होगा और न ही ओबामा की तरहे समर्पण। दूसरा संघ अब भारत से बहार विस्तार पर ध्यान ज्यादा दे जो धार्मिक और संस्कृतिक हो राजनेतिक तो बिलकुल भी नहीं। तीसरा चलो पूरब की ओर के दर्शन पर ध्यान दे। वहां पर हिन्दू अपनी शक्ति को पाने के लिए कुलबुला रहा है। चौथा भारत की राजनीती से बिलकुल तौबा करले अपने सभी भ्रात संघटनों को स्वतंत्र रहकर काम करने दे उसी प्रकार जैसे शारीर में आत्मा। जैसे की प्रोफेसिओनल कहेते हैं पॉलिसी बना दो प्लानिंग उन ही को बनाने दो। सबसे बड़ी और म्हेत्व्पूर्ण बात की यह सब संघ ही क्यों करे (जो ऊपर सुझाव दिया है).
तो बता दू की आज संघ नहीं होता तो हिन्दुओ का वो ही हाल होता जो फिलिस्तीनियो का हो रहा है। इसलिए जो हिन्दू संघ को गलत दृष्टी से देखते या परिभाषित करते है वो सिवाए अपनी संतानों (यदि वो हिन्दू रहेती है) की स्वतंत्रता, संप्रभुता और सुखमय जीवन के दुश्मन के आलावा कुछ भी नहीं है। नहीं विश्वाश तो पाकिस्तान और बांग्लादेश के उन कोमुनिस्टओ (जो हिन्दू थे ) की संतानों से पूछो जो की अब कलमा पढ़ रही है। और बटवारे में मिले हिंदुस्तान के कोमुनिस्ट (हिन्दू) आज भी अपने ही विचारो में सम्पन हैं और सुख से रहे रहे हैं मार्क्स की (लाल किताब के साथ)। इसका कारण क्या है। इसी का उत्तर इनको संघ दे सकता है। संघ ही चाणक्य की भाती हिन्दुओ को यवनों से बचा कर हिन्दुओ को स्वर्णिमकाल में लेजा सकता है। ऐसा मेरा दर्ड विश्वाश और पक्की आस्था है। आज भारत की हालत बिलकुल चाणक्य की समय की है जब मगध का शासन ऐयाशो के हाथो में आकार हिन्दू अपनी शक्ति का ह्रास कर के यवनों के आगे समर्पण कर रहे थे। हिन्दू शासक आपस में लड़ रहे थे तब कौटिलीय ने चाणक्य बनकर मगध का शासन एक ऋषि की भांति सुयोग्य वियक्ति को सौप कर हिन्दुओ की स्वतंत्रता, सम्पर्भुता, धार्मिकता अक्षुण बना कर रक्षा की थी। आज संघ से उसी चाणक्य की भांति हिन्दुओ को संघटित करकर वापस हिन्दुओ के हाथ में सत्ता देनी होगी और वह न तो उस समय मगध के शासको के साथ संभव था और न ही आज के शासको के साथ। अब संघ क्या जय प्रकाश नारायण और गाँधी से भी छोटा है जब यह देश समाज को बिना सत्ता के उद्वेलित कर सकते है तो संघ जैसा सात्विक, कर्मठ, समर्पित संघटन क्यों नहीं। जामवंत ही हनुमान जी की शक्ति याद दिलाता है परन्तु शक्ति हनुमान जी में ही थी जामवंत में नहीं।
याद करो गुरु जी की बात जब कहेते थे की मुझे ए़सा स्वम्सेवक चाहिय जो केवल इमानदार, होशियार, शक्तिशाली, वीर्यवान, समर्पित, बलशाली और कर्मठ ही नहीं हो बल्कि चतुर भी हो।
और अंत में विजय हमारी ही होगी डॉ. हेडगेवार जी के शब्दों में क्योंकि धरम (सत्य) हमारे साथ है।
मेरा भारत संघ के हिन्दुओं का नहीं है ,ये भारतवासियों का है जो हिन्दू भी हैं और मुस्लिम भी ,सिक्ख भी हैं और ईसाई भी ,आदिवासी भी हैं और पहाडी भी ,ये समग्र भारत है और यही भारत पूरे विश्व के हिन्दुओं का तीर्थस्थल है
ReplyDeleteहिन्दू संगठनों को बौद्ध संगठनों की ही तरह सहनशील होना सीखना चाहिए..उग्र हिंदूवादी हिन्दू धर्म का भला कैसे कर सकते हैं.
ReplyDeleteन तो अल्का जी ने इस बात पर गौर किया कि "यदि संघ नहीं होता तो आज हिन्दुओं का वही हश्र होता जो फ़िलीस्तीनियों का हो रहा है…" (हालांकि संघ की शक्ति सीमित होने के कारण आज नहीं तो कल यह होकर रहेगा…) तथा काजल कुमार ने यह नहीं बताया कि "कब तक" सहनशील रहना चाहिये, कोई समय सीमा? और नरम हिन्दूवादी यानी गाँधीवादियों ने हिन्दुओं का कितना भला किया है यह भी बताते जाते तो हमें ज्ञान प्राप्त होता।
ReplyDeleteअलका जी. जिस संघ के हिंदुत्व से आपको एलर्जी होती प्रतीत होती है उसके बारे में आपकी छोटी समझ देख कर हैरानी होती है. पता नहीं अपने जो पहाडी, आदिवासी गिनाये है कभी देखा भी है की संघ ने कितना काम किया है इनके लिए. खैर संघ तो कभी भी इस तेरहे से समाज को नहीं बांटता जिसप्रकार से अपने वर्गीकृत और संघ के हिंदुत्व को सरलीकृत किया है. हाँ कम से कम में आप की तरेह नकारात्मक सोच नहीं सोच सकते.
ReplyDelete.
ReplyDeletewelcome back to your orignal style of writing.
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