अन्ना हज्जारे आंदोलन एक ऐसा आंदोलन था जिसे आने वाले समय में इतिहासकार विशिष्ट स्थान देंगे और बतायंगे की कैसे एक समय में नक्सलीओ ने लोकतंत्र के अंदर घुसपैठ करने के तरीके खोज लिए थे। ये बेवकूफ "स्वयंसेवक" जीवन भर जंगलो में, गांव में, गरीबो के बीच, आदिवासीओ के बीच रहकर भी अनजान चेहरे रहते है और यहाँ दो - एक घंटे की मीडिया कवरेज में केजरीवाल / कन्हैया / जिग्नेश / अल्पेश / खालिद / चंद्रशेखर जैसे लोग लीडर बन जाते है। फिर बैकअप के लिए वामपंथी और कोंग्रेसी तो है ही।
नारा वो ही जेएनयू वाला एक ही पैटर्न पशिचम उत्तर प्रदेश से लेकर अब महराष्ट्र तक। लोकल बकैतो से काम नहीं चलेगा तो गुजरात या कश्मीर से माँगा लेंगे और कही से नहीं "भारत विरोधी कुचक्र गहा जेएनयू" से तो बुला ही लेंगे। लिबरल / बेचारे / अख़बार बाँचने वाले / सीधे साढ़े / भोले भाले लोग सोचते थे के कुछ एक नौजवानो ने जेएनयू में नारे ही तो लगाए " भारत विरोध" और भारत माता विरोध में स्टूडेंट है कुछ दिन बोलेंगे फिर बेचारे पढ़ने लग जायेंगे। मैं ताकीद कर दू ताकि कल को सनद रहे की इन ही लौंडो ने पश्चिम उत्तरप्रदेश से लेकर गुजरात और अब महराष्ट्र में आग लगा रखी है। हिन्दू एकता जिनको रास नहीं आ रही , भारत का प्रादुर्भाव जिनको सुहा नहीं रहा , पाकिस्तान की फजीहत अच्छी नहीं लग रही , देश का सौहार्द जम नहीं रही , अर्थव्यवस्था की प्रगति देखी नहीं जा रही , भारत माता जनजागरण बर्दाश्त नहीं हो रहा वो आज दलित कंधो को ढाल बना कर देश की एकता और अखंडता को धूल धूसरित करने के स्वप्न देख रहे है। सुनो ये लौंडो !!! हिन्दू धर्म के स्तम्भ ऋषि बाल्मीकि के वंशज हिन्दू धर्म के अविभज्य अंग है, उनकी वीरता और साहस श्री राम के साथ था और अब माँ भारती के साथ है।
अब आते है भीमा - कोरे गावं की घटना पर। कौन कहता है की दलितों का विरोध हो रहा है , जब तक दलित भाई चर्च और कम्युनिस्टो धोखे को नहीं समझेंगे दिक्कते बढ़ेंगी ही , दलित शौर्य से किसी को इंकार नहीं , परन्तु देश द्रोही खालिद और नक्सलियों को यलगार परिषद् में क्या काम ? कौन है वो आयोजक जो किसी अजेंडे के तहत यह घाल मेल करते है? किसके कहने पर दलितों के साथ खड़े होने की जगह वामपंथीओ की सुप्त आकांक्षा जागृत करने का कार्य करते है ? कौन है जो दलित एकता के नाम पर मोदी / संघ और भाजपा को गाली देने का मंच प्रदान करता है ? एक बात तो साफ है की मोदी जी के प्रधानमंत्री बनने के बाद वामपंथीओ ने इसमें से पिछडो को निकाल दिया और अब दलित और अलाप्संख्यक ही रह गए। मेरी समझ के बहार है की दलितों का देश द्रोही उम्र खालिद से क्या मतलब , मुझे नहीं पता की भीमा-कोरे गावं के दलितों को बनासकांठा के मेवानी की विधायिकी से क्या मतलब , नहीं समझ आता की देश द्रोही आवाज का अटटहास क्यों यलगार परिषद् के मंच से , इस मंच से लाल सलाम का क्या अर्थ है , क्या मतलब है वेमुला की आत्महत्या से। इस राजनीती को समझना होगा अन्यथा आप पश्चिम उत्तरप्रदेश के रावण को नहीं समझ पाएंगे , जेएनयू के रक्तबीज को जान नहीं पाएंगे और उनकी सड़को पर संघर्ष से भारत माता के कष्टों को नहीं समझ पाएंगे।
ऐसा ही कुछ दिन पहले पश्चिम उत्तरप्रदेश को आग में झोंकने वाले चंदरशेखर की भीम आर्मी ने किया। क्या भीम आर्मी नक्सली है ??
व्यर्थ का सवाल है इस बात से क्या फर्क पड़ता है की यह नक्सली है या नहीं, देखना यह था की शोषित है या नहीं, शोषित है तो निश्चित रूप से इसका निराकरण होना चाहिए बल्कि न्याय मिलना और दिखना दोनों चाहिए। इतना आरक्षण देने और राजनीती में पूर्ण भागीदारी देने पर भी लोग शोषण और दमन की बात करे तो इस पर कार्यवाही तो होनी ही चाहिए परन्तु समाजशास्त्रीओ इस पर अध्ययन भी करना चाहिए। क्यूंकि प्रशासन बोलेगा तो उसपर विवाद होगा , विरोधी पक्ष बोलेगा तो अविश्वसनीय लगेगा तो समाज का प्रबुद्ध वर्ग इस पर विवेचना क्यों नहीं करता इसका संज्ञान क्यों नहीं लेता के दो पैसे के मीडिया के लौण्डे मनचाह तरीके से इसे सनसनीखेज बनाते जायेंगे , टी आर पी बटोरे जायेंगे प्रमोशन पाए जायेंगे , आखिर सच्चाई को सामने लाने की पहल क्यों नहीं होती ??
टेक्नॉलजी इतनी आगे बढ़ गई और आराम तलबी इतनी बढ़ चुकी की अब कोई जंगल में लड़ाई लड़ नहीं सकता , चम्बल में भी कोई डकैत मिल नहीं सकता , और इसी लिए पश्चिम उत्तर प्रदेश के पड़े बड़े गन्ने के खेतो में डकैत (आदमी) मिलने बंद हो गए। केजरीवाल जी से देश के लोगो ने सालो संघर्ष करने के स्थान पर कुछ एक घंटे मीडिया कवरेज से मुख्यमंत्री बनते देखा है सो जिन सरकारों ने फ्री में देश के संसाधन कुछ लोगो को ठूस ठूस कर खिलाये है वो अब डकारे लेने लगे और एडवेंचर करने निकल पड़े। दूसरा वामपंथी और एनजीओ वालो की दहाडी में जूं पड़ने लगी बिना काम के तो कुछ एक कभी कभी छत्तीसगढ़ में भड़का कर आ जाते है और कुछ एक दिल्ली के आसपास अपनी भड़ास निकाल आते है। नक्सली अब जंगल में नहीं रह गए जैसे अनपढ़ लोग ही जिहादी बने यह मिथ टूट चूका है उसी प्रकार ये सब अतिवादी शहरो में अय्याशी करने पहुँच चुके है।
वामपंथी पोंगापंथी पिछले कुछ सालो से विशेष रूप से कांग्रेस के शासन में दिल्ली और उसके आसपास वामपंथ की खरपतवार पैदा करने की भरसक कोशिश कर रहे है। मानेसर मारुती फैक्टरी की घटना देख लो हीरो होंडा गुड़गांव की घटना देखलो, दिल्ली में आप पार्टी का उदय देखलो, और अब पश्चिम उत्तरप्रदेश में भीम आर्मी देख लो।
अच्छा पैटर्न बड़ा सही है, पहले नक्सली का बौद्धिक गैंग एक विशेष रूप की बॉलीवुड की पिक्चर बनाता है, उसमे मुद्दों को बड़े करीने और किरदार को बड़ी ही महीनता से घडता है फिर उसे कमर्सिअल पिक्चर के रूप में हमारे गले उतारता है और फिर टीवी पर वो पिक्चर बार बार लगातार दिखाई जाती है। खैर पहले यह गैंग भारत की गरीबी पिक्चरों में दिखा कर विदेशो में पुरस्कार बटोरता था वो क्या कहते है "आर्ट पिक्चर " के नाम पर परन्तु अब जब से आर्ट कलाकार भी इधर कॉमर्शियल में आगये तो फिर कमर्शिल पिक्चरों में ही "हम पांच " टाइप के मुद्दों को सनसनीखेज बना कर आम पिक्चरों का ही निर्माण करने लगे। एक बार करेक्टर घड दिया फिर उसी तर्ज पर आंदोलन करो उसको प्रिंट मीडिया में आर्टिकल लिखवाओ और इलेक्ट्रॉनिक पर लाइव दिखाओ। केजरीवाल टाइप कवरेज। अब दो चार महीने पहले इसमें एक नया पुट और आया है की १०-१२ कम्पनिया सोशल मीडिया ही हेंडल करती है उनका काम ही अब वीडिओ बना कर यूट्युब डालना , फसेबूक और बाकि सब सोशल मीडिया पर एक विशेष विचारधारा जैसे हिन्दू विरोध , भारत विरोध , देश विरोध , समाज विरोध , विकास विरोध की मिलती जुलती खबरे डालना ही है।
अब लेटेस्ट अजेंडा है की दिल्ली / मुंबई के आसपास कुछ सनसनीखेज समर्थक पैदा किये जाये इसमें नक्सलियों और वामपंथियों को तो लाभ है की कुछ जमीन उनकी भी उर्वर हो जाएगी दूसरा बड़ा लाभ वामपंथी बौद्धिकों और मीडिया वालो को भी है , कहाँ दूर सतपुड़ा के जंगलो में जाये, कौन छत्तीसगढ़ के डेन्स फारेस्ट में ऐसी की तैसी करवाए। दिल्ली वाले पत्रकारों को तो और भी सुविधा है की कार में बैठे एक दिन का टीएडीए बनाया सिगरेट पीते गए और बियर पीते आगये , रिपोर्टिंग की रिपोर्टिंग कर दी और श्याम को बीवी बच्चो के पास आ गए , उसमे भी सुविधा यह है की नोएडा और गाजियाबाद में ही सब भाई बंधू रहते है दिल्ली के जाम का झंझट भी नहीं।
गलती मोदी सरकार की भी है कोई भ्रष्टाचार नहीं , कोई मीडिया से प्रेस कॉनफेरेन्स नहीं है , मंत्रीओ में प्रणव जी चितंबरम टाइप नमक मिर्च वाली खबरे नहीं , अब अपने ही लोगो लल्लू यादव की घोटाले और कार्तिक की खबरे कितनी दिखाए ? और फिर बंगाल बिहार कवरेज के लिए खर्चा भी ज्यादा आता है अब हाईटेक चिकने थोबड़े वाले पत्रकार ट्रैन से कहाँ यात्रा करते है।
चलो अब आते है वापस इन तथाकथित दलित आंदोलनों पर, अच्छा ध्यान दो इनकी कुछ एक भावभंगिमाएं देखो तो आपको स्वतः ही पता चल जायेगा की यह कौनसी भाषा बोल रहे है।
भीम आर्मी या जिग्नेश या चंद्रशेखर का अभिवादन शब्द "क्रन्तिकारी सलाम या लाल सलाम " इसकी नक्सली चाशनी की लपट दिखती है।
चंद्रशेखर नेता का नाम असंख्य नक्सली नेताओ के नामो के समान है जो हमारे भोले भाले दलित भाइयो में हमारे आराध्य वीर क्रन्तिकारी श्री चंदरशेखर जी आजाद का भ्रम पैदा करता है। और फिर अपने भाषणों में भगत सिंह का जिक्र करते जरूर है।
इधर भीमा-कोरे गावं का शौर्य बहाना है और उधर पश्चिम उत्तरप्रदेश में कथित रूप से दलित भाइयो के घर उजाड़े गए है (जिसका की मुझे वास्तव में बहुत दुःख है) का बदला वो ही मुस्लिम , दलित भाई लेंगे। जैसा की भीम आर्मी कह रही है अर्थात कोई त्वरित प्रतिक्रिया नहीं बल्कि एक सोची समझी राजनीती के तहत वामपंथीओ को आने वाले चुनाव में वोटो की फसल काटने की धरती प्रदान की जा रही है।
चंद्रशेखर आजाद यह ही नाम बताया गया है भीम आर्मी के नेता जी का जो एडवोकेट भी बताता है अपने को जो अपने समर्थको को ३००० का कट्टा (देशी पिस्तौल ) देने की बात करता है , बहन मायावती जी ने तो केवल जूते मारने के लिए बोला था बनियो , ठाकुरो और ब्रह्मणो को। परन्तु इस पश्चिमी उत्तरप्रदेश की धरती पर भीम आर्मी का नेता ३००० रूपये का देशी तमंचा अपने समर्थको को देने का वादा करता है। इसके परिणाम और कुपरिणाम का केवल अंदाजा ही लगाया जा सकता है। जैसे की जिग्नेश मेवानी बिना किसी सन्दर्भ और उकसावे के ५६ इंच की छाती फाड़ने की बात करता है।
आप पार्टी का नेता केजरीवाल भी मुकेश अम्बानी को गाली देता था और जिग्नेश मेवानी भी अनिल और मुकेश अम्बानी को गाली देता है और दोनों ही वामपंथियों का एजेंडा पढ़ रहे है और अपना उल्लू सीधा कर रहे है और बदनाम हमारे बेचारे दलित भाई हो रहे है।
इनके नेता और संघटन में घोर कन्फयूजन है - भीम आर्मी का नेता चंद्रशेखर कभी आजाद बताता है तो कभी उधम सिंह तो कभी बाबा साहिब की औलाद तो कभी रावण (ब्राह्मण ) की संतान कभी नक्सली न होने की शपथ खाता है तो कभी देश से पूरी गैर दलित जाति को भगाने की बात करता है , कभी मायावती की जय बोलता है तो एक ही साँस में मायावती की हस्ती मिटाने की बात करता है , कभी हिन्दू होने का वादा करता है तो कभी बौद्ध बनने की धमकी देता है। कभी काशीराम का बेटा बताता है तो कभी अपनी ही जाति के विधायकों और सांसदों का मुँह काला करने का आवाहन करता है। समझ कम बोलता ज्यादा , शांति कम क्रांति का ढोंग ज्यादा। कभी भाषण में कुमार विशवास की झलक दिखाता है तो कभी जेएनयू के कन्हैया वाली एक्टिंग करता है। जहाँ कन्हैया नहीं पहुँचता वहां उसकी शैली पहुँचती है क्यूंकि उसको ट्रेनिंग दिल्ली के बड़े पत्रकारों ने अपने टीवी स्टूडियो में दी है।
मुझे अंदाजा नहीं की वामपंथी वैचारिक प्रबंधन इन नेताओ की कला तराशेगा या अनघड़ रखकर केवल उपयोग करेगा। हाँ निश्चित है २०२४ की तैयारी हो रही है बनिया नेता, भूमिहार नेता और दलित नेता तैयार होनेके बाद किसी और वर्ग या जाति को नक्सली ग्रन्थ पढ़ाया जाता है देखना बाकी है। क्यूंकि अब राजस्थान और मध्य प्रदेश के चुनाव से पहले वहाँ भी तो कांग्रेस - चर्च - वामपंथी - देशद्रोही - हिन्दू विरोधी कुछ करने की जुगत में है। संघ के प्रति इन नक्सली नेताओ की नफरत देख कर लगता है न इनको देश से प्यार है न समाज से न जाति और न अपने लोगो से बस हिंसा की चिंगारी के बीज बो कर कुछ एक दिनों में देश का नेता बन जाना ही धेय है। डर बस इतना है की जिन लोगो ने देश में इस तरह की राजनीती का अखाडा बनाने का विचार बोया है उसको काटेगा कौन ??????
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